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शिक्षा का व्यावसायीकरण। Commercialization of education। शिक्षा धन कमाने का बाजार।। शिक्षा का निजीकरण

  शिक्षा का व्यावसायीकरण। Commercialization of education। शिक्षा धन कमाने का बाजार।। शिक्षा का निजीकरण।

शिक्षा का व्यावसायीकरण। Commercialization of education। शिक्षा धन कमाने का बाजार।।

भारत की जनसंख्या 121 करोड़ को पार कर गई है। इतनी बड़ी आबादी के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना सिर्फ सरकार के भरोसे सम्भव नहीं है। इस समस्या के निपटान हेतु सरकार ने निजी क्षेत्रों की भागीदारी भी इस क्षेत्र में सुनिश्चित की है। इस प्रकार शिक्षा के निजीकरण का अर्थ है- शिक्षा के क्षेत्र में सरकार के अतिरिक्त गैर-सरकारी भागीदारी। वैसे तो ब्रिटिश काल से ही निजी संस्थाएँ शिक्षण कार्य में संलग्न थीं, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए अनुदान एवं सरकारी सहायता के फलस्वरूप भारत में निजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है। स्थिति अब ऐसी हो चुकी है कि इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है, क्योंकि अधिकतर निजी शिक्षण संस्थाएँ धन कमाने का केन्द्र बनती जा रही हैं एवं इनके द्वारा छात्रों एवं अभिभावकों का शोषण हो रहा है। शिक्षा के निजीकरण के यदि कुछ गलत परिणाम सामने आए हैं, तो इससे लाभ भी निश्चित तौर पर हुआ है।


शिक्षा के निजीकरण के कारण तेजी से शिक्षा का प्रसार हो रहा है। जिन लोगों को प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल रहने के कारण किसी व्यावसायिक या अन्य पाठ्यक्रम में प्रवेश नहीं मिल पाता, वे अधिक धन खर्च करके मनोवांछित शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह, शिक्षा के निजीकरण के कारण देश का धन सकारात्मक कार्यों में लग रहा है। नई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना के कारण नवयुवकों को रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। शिक्षण से सम्बन्धित व्यवसायों को भी गति मिल रही है। निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रतिभावान छात्रों को ही अवसर मिलता है। पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इतनी अधिक संख्या में प्रति वर्ष सरकारी नौकरियों का सृजन कर पाना सम्भव नहीं। निजी संस्थाओं की अधिकता के कारण इन लोगों को भी रोजगार के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस तरह शिक्षा के निजीकरण के कारण देश के आर्थिक विकास को भी गति मिल रही है।


यही नहीं शिक्षा के क्षेत्र में निजी भागीदारी से उत्पन्न प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार भी हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों में योग्य शिक्षकों को बेहतर वेतनमान पर भर्ती किए जाने से शिक्षकों की दशा में सुधार के साथ-साथ शिक्षित लोगों के लिए रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस तरह शिक्षित लोगों को इसके जरिए रोजगार के साधन उपलब्ध कराने एवं शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हेतु शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा देना उचित है।


शिक्षा में निजीकरण से यदि कुछ लाभ हुए हैं, तो इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। शिक्षा में निजीकरण के कारण स्थिति अब ऐसी हो चुकी है कि इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है, क्योंकि अधिकतर निजी शिक्षण संस्थाएँ रेवड़ियों की तरह डिग्रियाँ बाँट रही हैं। जगह-जगह डीम्ड विश्वविद्यालय खुल रहे हैं। शिक्षा आज व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। शिक्षा के निजीकरण का लाभ निर्धन लोगों को नहीं मिल रहा है। कारण, शिक्षा महँगी हो गई है। शहरों के निजी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर की कक्षाओं के बच्चों से भी एक हजार से लेकर पाँच हजार रुपये तक मासिक शुल्क लिया जाता है। आम आदमी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने के लिए इतने शुल्क को वहन करने में अक्षम है। शिक्षा के निजीकरण के कारण कोचिंग एवं ट्यूशन संस्कृति को बढ़ावा मिला है। बड़े-बड़े उद्योगपति भी शिक्षा में धन का निवेश कर रहे हैं। शिक्षा में धन के निवेश को अच्छा कहा जा सकता है, किन्तु उनका उद्देश्य शिक्षा का विकास नहीं, बल्कि धन कमाना होता है, जिसके कारण कई अन्य समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। उद्योगपति धन का निवेश करने के बाद धन कमाना चाहते हैं. इसके लिए वे शिक्षकों एवं अभिभावकों का शोषण करते हैं।


शिक्षा के व्यावसायीकरण से भारत में निजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई है, किन्तु लाखों की संख्या में मौजूद इन निजी शिक्षण संस्थाओं में से नब्बे प्रतिशत संस्थान या तो शिक्षण की गुणवत्ता के पैमाने पर नहीं उतरते या फिर उनके पास पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक संसाधन नहीं हैं। इन सबके अतिरिक्त निजीकरण के कारण फर्जी शिक्षण संस्थाओं की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो चिन्ता का विषय है। इस तरह, निजी क्षेत्र में प्रबन्धन की अक्षमता एवं मनमानी के कारण न तो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हो पा रही है और न ही गुणवत्ता के पैमाने पर ये खरे उतर रहे हैं। इसके साथ ही निजी क्षेत्र के शैक्षिक संस्थानों द्वारा शोषण एवं गलत मार्गदर्शन के कारण लाखों छात्रों का भविष्य अन्धकारमय हो रहा है। यही कारण है कि शिक्षा के निजीकरण के औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं।


पहले धनी व्यक्तियों द्वारा शिक्षण संस्थाओं की स्थापना सामाजिक सहयोग एवं उत्तरदायित्व निभाने के लिए की जाती थी। अब इसका उद्देश्य सामाजिक सहयोग न होकर धनार्जन हो गया है। इसलिए शिक्षा के निजीकरण से जो लाभ होना चाहिए, वह समुचित मात्रा में समाज को प्राप्त नहीं हो रहा है। यदि शिक्षा के निजीकरण में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए एवं शिक्षकों की सेवा शर्तों का संरक्षण सरकार द्वारा हो, तो शिक्षा के निजीकरण के लाभ वास्तविक रूप में मिल पाएँगे। शिक्षा की अनिवार्यता के दृष्टिकोण से इसके सार्वभौमीकरण की बात की जा रही है। इस कार्य में निजी सहभागिता अनिवार्य है। इसलिए शिक्षा का निजीकरण तो अनिवार्य है, किन्तु इसमें इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि शिक्षा के उद्देश्य बाधित न होने पाएँ।

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